एक नयी संस्कृति की नींव डालें

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भारतवर्ष अतीत में वैभवशाली रहा है, लेकिन एक मनुष्य अपनी आवश्यकता से अधिक धन का संग्रह न करे, प्रभुता स्थापित करने की मनोवृत्ति से ग्रस्त न हो, इसे मनुष्य के सुसंस्कृत होने का परिचय माना गया. आधुनिक युग के महापुरुषों ने भी त्याग का जीवन व्यतीत किया. हमारे बाबूजी भी धन से, वैभव से, सत्ता से दूर ही रहे. हमें कहा करते थे कि यह एक सुसंस्कृत मनुष्य का लक्षण है कि उसके पास उसकी आवश्यकता से अधिक धन न हो और प्रेम-स्नेह की ताकत को छोड़ दूसरी कोई ताकत न हो. वे कहते हैं, समाजवाद एक सुसंस्कृत मनुष्य की अंत:प्रेरणा है, जो उसे प्रेरित करती है कि जो कुछ भी विश्व में उपलब्ध है-सामान, अनाज, ज्ञान, कला- वह सबको मिलना चाहिए. गरीबों की झोपडि़यों के बीच राजमहल बना कर रहना और राजसी भोग करना पूंजीवाद की पहचान नहीं, असभ्य और जंगली मनुष्य की पहचान है.
।। उदय राघव ।।
प्रश्न गरीबी का नहीं. प्रश्न गरीबों का भी नहीं. वास्तविक प्रश्न यह है कि लोग अमीर क्यों हैं? इतना धन क्यों संगृहीत है लोगों के पास? वैभव का प्रदर्शन क्यों है इतना? सरकारों-संस्थाओं के पास इतनी ताकत क्यों है? पावर (शक्ति) इतना आकर्षित क्यों करने लगा है? सत्ता इतनी केंद्रित क्यों हो गयी है? मूलत: इनका संबंध मनुष्य की सांस्कृतिक गिरावट से है. सत्ता और संपत्ति के पावरफुल पॉकेट्स तैयार होना संस्कृति के नहीं, विकृति के चिह्न हैं. उत्तरोत्तर सुसंस्कृत होते हुए मनुष्य की पहचान यह होगी कि वह सत्ता, धन, वैभव, पावर- इन सब से दूर होता जाये. इसलिये इतिहास में भोग को नहीं, त्याग को प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है. राम और भरत के बीच अयोध्या के राज्य को पाने की नहीं, छोड़ने की होड़ लग गयी थी. कृष्ण राजसत्ता और वैभव से एक दूरी रख कर चलते हैं. वृंदावन का कन्हैया बन कर पूरी जिंदगी काट देना अगर संभव होता, तो शायद वे वैसा ही जीवन पसंद करते. यह संभव न हो सका, इसलिए सत्ता, वैभव इत्यादि से उन्होंने कम से कम संबंध रखा.
बुद्ध, महावीर भी सत्ता, धन, वैभव से दूर हटते दीखते हैं. भारतवर्ष अतीत में वैभवशाली रहा है, लेकिन एक मनुष्य अपनी आवश्यकता से अधिक धन का संग्रह न करे, प्रभुता स्थापित करने की मनोवृत्ति से ग्रस्त न हो, इसे मनुष्य के सुसंस्कृत होने का परिचय माना गया. भारतीय मनीषा का सर्वश्रेष्ठ जिन ऋषियों के जीवन में अभिव्यक्त हुआ, वे सत्ता, संपत्ति और वैभव से बिल्कुल अलग-थलग रहे. आधुनिक युग के महापुरुषों ने भी त्याग का जीवन व्यतीत किया. हमारे बाबूजी भी धन से, वैभव से, सत्ता से दूर ही रहे. और इसे वे कोई विशिष्ट उपलब्धि नहीं मानते थे. हमें कहा करते थे कि यह एक सुसंस्कृत मनुष्य का लक्षण है कि उसके पास उसकी आवश्यकता से अधिक धन न हो और प्रेम-स्नेह की ताकत को छोड़ दूसरी कोई ताकत न हो. समाजवादियों से वे कहते हैं, समाजवाद एक सुसंस्कृत मनुष्य की अंत:प्रेरणा है, जो उसे प्रेरित करती है कि जो कुछ भी विश्व में उपलब्ध है-सामान, अनाज, ज्ञान, कला- वह सबको मिलना चाहिए. गरीबों की झोपडि़यों के बीच राजमहल बना कर रहना और राजसी भोग करना पूंजीवाद की पहचान नहीं, असभ्य और जंगली मनुष्य की पहचान है.
हमारे बचपन में हमारे छोटे से शहर में साधारण लोगांे के बीच में यह सहज मान्यता थी कि मनुष्य के पास उसकी आवश्यकता से अधिक धन नहीं होना चाहिए. सामाजिक नैतिकता की यह सहज स्वीकृति थी. धनवानों को भी इसका एहसास रहता था, इसलिए वे अपनी लज्जा छुपाने के लिए चैरिटी करना जरूरी समझते थे. धन-संग्रह के अधर्म को वे समझते थे. इसलिए धन के प्रति आकर्षण को टाल न सकने की अपनी आंतरिक कमजोरी उन्हें धरम-करम की ओर प्रेरित करती थी. आज के धनवान भी चैरिटी करते हैं. किंतु इन सब का विश्लेषण करने के लिए यहां मैं तत्पर नहीं हूं. यह मेरा लक्ष्य भी नहीं है. मेरा लक्ष्य है, उस व्याधि को पहचानना, जिसके कारण एक मनु़ष्य अत्यधिक धनवान हो जाता है, धन-पशु हो जाता है. शासन-व्यवस्था अत्यधिक शक्तिशाली हो जाती है. लोग अत्यधिक पावर-हंगरी (ताकत के भूखे) हो जाते हैं. पावरफुल (शक्तिशाली) होने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं. संगठित संप्रदायों और अन्य संस्थाओं की ताकत भी कम नहीं है. यदि इस मौलिक प्रश्न की ओर ध्यान नहीं दिया गया, तो हम समाधान कैसे खोजेंगे? किसका सामाधान करेंगे? किस दिशा में जायेंगे?
संचय-वृत्ति के मूल में है, असुरक्षा की भावना. सामूहिक जीवन का आधार ही सुरक्षित होने की भावना में है. यह सुरक्षित होने की भावना, परस्पर के कुशल-क्षेम के प्रति सचेष्ट रहने की भावना ही यदि तिरोहित हो जाये, तो फिर इस समूह की, समाज की क्या आवश्यकता? कैसी सार्थकता? जिस प्रकार असुरक्षा की भावना सामाजिकता का निषेध है, उसी प्रकार धन-संग्रह की वृत्ति, शक्तिशाली होने की वृत्ति भी सामाजिकता का निषेध है. बल्कि इससे एक कदम आगे, मनुष्यता का निषेध है. मानवीय संस्कृति का निषेध है. संस्कृति मैं से हम की ओर ले जाती है.
मनुष्य संग्रह करेगा ही क्यों? आपद-विपद में क्या हम एक दूसरे की मदद के लिए आगे नहीं आयेंगे? फिर यह समाज क्या है? किनका है? हम क्या हैं? मनुष्य हैं या पशु? हम केवल अपने लिए ही चिंता करेंगे, दूसरों के लिए नहीं? अपने लिए ही जियेंगे, दूसरों के लिए नहीं? अपने लिए चिंता करने की बाध्यता पैदा करने वाला समूह, समाज नहीं कहला सकता. मनुष्य का समाज तो बिल्कुल ही नहीं. इसलिए मित्रो, प्रश्न संस्कृति का है. हम सुसंस्कृत मनुष्य नहीं रहे, यह प्रश्न है. मनुष्य का परिचय उसके व्यवहार से मिलता है और मनुष्य का व्यवहार, उसका आचरण, उसकी आवश्यकताएं- ये सभी उसके संस्कारों के अनुसार निर्धारित होते हैं. अच्छे संस्कारों वाले मनुष्य के द्वारा अच्छे समाज का निर्माण होता है. कानून के द्वारा संस्कार नहीं बदले जा सकते. कुसंस्कारों की अभिव्यक्ति को कुछ हद तक रोका जा सके, इतनी मात्र कानून की सीमा है.
संस्कृति उस प्रक्रिया का नाम है जिसके अंतर्गत अवांछित संस्कारों को हटा कर, समाज के लिए आवश्यक उपयुक्त संस्कारों की स्थापना होती है. संस्कृति की प्रक्रिया मां की गोद से शुरू होती है और मृत्यु की गोद तक चलती रहती है. इस क्रम में मनुष्य की आदर्श प्रेरणाएं संस्कृति का हिस्सा बनती जाती हैं. मनुष्य-समाज को समग्रता में पे्ररित, संचालित करती हुई संस्कृति उसके संपूर्ण शील को परिभाषित करती है. इसलिए इसकी जड़े बड़ी गहरी होती हैं. वह लंबी अवधि तक और बड़ी गहराई में जाकर प्रेरणा देने का कार्य करती है.
सामान्य विधि-निषेधों से लेकर ज्ञान-विज्ञान, धर्म और अध्यात्म के शीर्ष तक इसकी पहुंच है. जो कुछ भी ज्ञात का क्षेत्र है, वह संस्कृति का क्षेत्र है. संस्कृति से परे का क्षेत्र अज्ञात का, शब्दों से परे का, निर्गुण-निराकार का क्षेत्र है. जो भी सगुण साकार है, वह संस्कृति के आधार पर खड़ा है. इसलिए संस्कृति का प्रश्न पूरी मानव जाति को घेर कर खड़ा है. यह सिर्फ किसी समाज-विशेष का, देश-विशेष का प्रश्न नहीं, पूरे विश्व का प्रश्न है. समाज को देख कर यह सहज ही समझा जा सकता है कि मौलिक प्रश्न संस्कृति के अभाव का है. मानव-समाज का अधिकांश हिस्सा सांस्कृतिक रूप में उन्मूलित हो चुका है. समाज की मुख्यधारा से संस्कृति का आधार ही समाप्त हो चुका है.
संस्कृति के अभाव में बुद्धि का, बल का, सत्ता का, धन का उपयोग वासनाओं की तृप्ति, निरंकुश शासन करने की वृत्ति, दुराचार इत्यादि में होता है. हम मनुष्य होते हुए भी दूसरे मनुष्य के प्रति सहज संवेदना नहीं रख पाते. संस्कृति के अभाव में ही अपनी आवश्यकता से अधिक धन-संपत्ति वापस समाज को न लौटा कर, अपने ही पास रख लेते हैं. इस सांस्कृतिक क्षरण के पीछे ऐतिहासिक कारण रहे हैं. पिछली कुछ सदियों में ज्ञान-विज्ञान के नये सूर्य का उदय हुआ है. सृष्टि के रहस्यों पर से एक-एक कर परदा उठता गया. प्राकृतिक शक्तियां मनुष्य के हाथ लग गयीं. प्रकृति के परमाणुओं और प्राणियों की कोशिकाओं तक उसकी पैठ हो गयी. वह स्वयं रचयिता हो गया. इन सब के सामने प्राचीन संस्कृति का विस्तार कम पड़ गया. वह सीमित-स्थगित सी मालूम पड़ने लगी. इसलिए आज नयी संस्कृति के निर्माण का महत्वपूर्ण प्रश्न सामने खड़ा है.
लेकिन संस्कृति का काम ओवर-नाइट- एक दिन में तो नहीं हो सकता. दूसरी ओर संस्कृति के अभाव में मानव-समाज राक्षसी वृत्तियों से ग्रस्त होकर, सब कुछ अर्थात्- सत्यं-शिवं-सुंदरम को समाप्त कर चुका है. बहुत बड़ी समस्या है. क्योंकि फिर से, नये सिरे से संस्कृति की प्रक्रिया आज शुरू भी की जाये तो उसका परिणाम मिलते-मिलते पचीस-पचास साल तो लग ही जायेंगे. दूसरी तरफ संस्कृति के अभाव में यह समाज सब कुछ को ध्वस्त कर, पृथ्वी के महाविनाश को आमंत्रित कर लेगा. संस्कृतिविहीन सभ्यता टिक नहीं सकती. वह नष्ट हो जायेगी. शक्ति की भूख से ग्रस्त, धन-वैभव और भोग-लिप्सा में डूबे, सत्ता के मद में चूर इस समाज को कानून के माध्यम से बदला नहीं जा सकता और राजनीति तो इस संस्कृतिविहीन पशु की दासी बन चुकी है.
एक तरफ तो इतनी विकराल समस्या और दूसरी तरफ समस्या के निदान के आधार का अभाव- ये दोनों बातें एक साथ मुंह बाये खड़ी हैं. बाबूजी कहते थे कि आध्यात्मिक आयाम में संपूर्ण क्रांति नये समाज का आधार रखेगी. नये समाज के लिए नयी संस्कृति का आधार चाहिए. इस नयी संस्कृति का आधार क्या होगा? औद्योगीकरण, बाजार अर्थव्यवस्था, राजनीति खास कर चुनावी राजनीति, सत्ता पाने की राजनीति ने समाज में जो जहर घोला है जिसने चली आती संस्कृति को छिन्न-भिन्न कर दिया, उस जहर को अध्यात्म से ही दूर किया जा सकता है. एक नयी संस्कृति जिसके आधार में अध्यात्म हो, विश्व में खड़ी करनी होगी. मैंने पहले भी कहा है कि अध्यात्म की सहज अभिव्यक्ति है समाजवाद. एक आध्यात्मिक व्यक्ति सहज ही सबका हित सोचता है. सबके हित में ही अपना हित देखता है. इसलिए अध्यात्म के आधार पर नयी संस्कृति को खड़ी करना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है (अतीत में हुए साम्यवाद के प्रयोग को आध्यात्मिक आधार मिलना चाहिए था).
अध्यात्म के आधार पर विश्व-संस्कृति के खड़े होने में, आज की व्यवस्था में फलने-फूलनेवाले स्वार्थी तत्वों की ओर से बाधाएं खड़ी होंगी ही. अध्यात्म का पथ निहित स्वार्थ का त्याग खोजता है. अपने हित-चिंतन के त्याग की अनिवार्यता है उसमें. आध्यात्मिक व्यक्ति के जीवन के आधार में मैं नहीं, हम रहता है अथवा निर्विशेष तत्व. लेकिन मैं नहीं होगा, यह अनिवार्य है. इसलिए, जो शक्तिसंपन्न हैं, जो धनवान हैं, वैभवशाली हैं, उन्हें आध्यात्मिक जीवन स्वीकार करने में अनेक प्रकार के अवरोधों का सामना करना पड़ेगा. स्वार्थ का आकर्षण, अपना भला देखना, अपना फायदा देखने की वृत्ति आध्यात्मिक बनने नहीं देती. ऐसे लोग यथास्थिति को बनाये रखना चाहते हैं. किसी भी आध्यात्मिक संस्कृति के खड़े होने में, ऐसी शक्तियां बाधाएं खड़ी करती ही हैं. संगठित संप्रदाय का जो ह्यकंट्रोलह्ण (आधिपत्य) है, वह भी आध्यात्मिक संस्कृति खड़ी होने में बाधाएं पैदा करेगा. इन संगठनों की शक्ति जिस आधार पर खड़ी है उस आधार को ही अध्यात्म अस्वीकार कर देगा.
जब हम विश्व स्तर पर आध्यात्मिक संस्कृति के खड़े होने की बात सोचते हैं, तो इसके विरोध में खड़ी परिस्थितियां साफ इंगित करती हैं कि यह कितना विशाल और असंभव-सा दिखने वाला कार्य है. जो मानव तमाम सांस्कृतिक मूल्यों को अपने पैरों तले रौंद रहा है, वह किन हाथों से नयी संस्कृति के बीज बोयेगा? स्वार्थ की दिशा परमार्थ की ओर कैसे मुड़ जायेगी? वर्तमान का एक उदाहरण हमारे सामने है. अरविंद केजरीवाल एक नयी राजनीतिक संस्कृति का निर्माण करना चाहते हैं, तो उनके मार्ग में हर प्रकार की बाधाएं खड़ी की जा रही हैं. किसी व्यक्ति या समाज में इतनी ताकत नहीं कि वह पूरे विश्व में सांस्कृतिक अध:पतन रोक कर, उसे उल्टी दिशा में- नूतन संस्कृति के आरोहण की दिशा में मोड़ दे. इसलिए हम यह अहमन्यता छोड़ दें कि हम अपनी बदौलत इतनी बड़ी क्रांति ला देंगे.
अंतर में विश्वास का दीपक जलाना होगा और ईश्वर की शरण में जाना होगा. इसी कारण हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह अपनी ताकत से हमारे सद्प्रयासों का समर्थन करें. ईश्वरीय शक्ति, योग्य मनुष्य और संपूर्ण परिवर्तन की अनिवार्यता खड़ी कर देनेवाले काल की त्रिपुटी एक साथ खड़ी होगी. ईश्वर प्रमाण दे दें, तब तो विश्वास करना ही चाहिए. ईश्वर की मदद का अनुभव हो जाये, तो फिर मैं के टिके रहने का कोई कारण नहीं. हमें ईश्वरीय प्रेरणा का वाहक होकर नव-निर्माण के पथ पर बढ़ना होगा.
इन सब के लिए हमें अपने आंतरिक अवरोधों को पार करना होगा. संस्कारों से मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है- ऐसा शास्त्रों में कहा है. हम तामसिकता को राजसिकता से काटते हैं, राजसिकता को सात्विकता से काटते हैं और सात्विकता को काटना नहीं पड़ता, वह सहज स्वभाव है. क्यों? क्योंकि वह सत् पर खड़ा है. सात्विकता को संस्कारों का सहारा नहीं चाहिए. सात्विकता को संस्कृति का आधार नहीं चाहिए, क्योंकि वह सत् के आधार पर खड़ी है इसलिये स्वाया है.
इतिहास में झटके लगते हैं. ईश्वरीय प्रेरणा से भी झटके लगते हैं. सार्वजनिक रूप में कुछ घटनाएं इस तरह घटती हैं कि उनका लॉजिकल एक्सप्लानेशन खोजना मुश्किल हो जाता है. इन झटकों से हमें नयी दिशा मिलती है. आगे की राह का अनुसंधान  होता है. ईश्वरीय हस्तक्षेप के संकेत के रूप में किसी घटना को स्वीकार किया जाये अथवा एक संयोग मान कर उसे और उसके महत्व को छोटा कर दिया जाये, उपेक्षित कर दिया जाये या एकदम से इनकार कर दिया जाये- यह हमारे सोचने-समझने के ढंग पर निर्भर करता है. हाल ही में ऐसी एक घटना (दिल्ली विधानसभा का चुनाव) घटी, जिसमें एक खास पार्टी की सफलता का श्रेय सार्वजनिक रूप से ईश्वर को, कुदरत को दिया गया. इस झटके से यह स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है कि ईश्वर चाहता है कि महत्वपूर्ण निर्णयों का अधिकार आम आदमी के पास हो. साधारण आदमी डिसीजन मेकिंग प्रॉसेस (निर्णय लेने की प्रक्रिया) में ज्यादा भागीदारी चाहता है. ईश्वर चाहता है कि हम जिम्मेदार बनें और सबके हित का सोचें. आध्यात्मिक आदमी अपने जीवन को आत्मा के आधार पर खड़ा करता है. इसलिए उसके जीवन में सहज ही सबके लिए आत्मीयता, स्वयं कष्ट उठा कर भी दूसरों का कष्ट दूर करने की इच्छा का दर्शन होता है.
अध्यात्म के आधार पर एक विश्वव्यापी सभ्यता और संस्कृति खड़ी हो इस दिशा में हमारा प्रयत्न हो, हमारे द्वारा प्रार्थना हो, तो ईश्वरीय कृपा की मदद से समाज बदलेगा, आध्यात्मिक आधार पर विश्व-संस्कृति बनेगी. इस विश्व-संस्कृति का प्रादुर्भाव इस भावना से होगा कि हम संसार के हैं और संसार हमारा है. एक बार पुन: कहना चाहूंगा कि यह सब एक अत्यंत विशाल कार्य है. हम इस प्रक्रिया में पार्टीसिपेट (भागीदारी) भी कर सकते हैं और स्पेक्टेटर (दर्शक) भी रह सकते हैं. समझ-बूझकर इनवॉल्व्ड (संबद्ध) भी रह सकते हैं या विटनेस (साक्षी) भी रह सकते हैं, अनजाने भी किसी अज्ञात प्रेरणा से परिचालित हो सकते हैं. यह सब हम पर, आप पर, और पूरे समाज पर निर्भर करता है.

आदिवासी संस्कृति के आधार -एक दृष्टिकोण

 रंग, रूप और भाषा के आधार पर एक नस्ल के लोगों की पहचान और दूसरे से उसके फर्क को रेखांकित करने की कोशिश होती रही है।
लेकिन जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण के अंतर को जब तक नहीं समझा जाए, तब तक आदिवासी और गैर-आदिवासी समाज के फर्क को हम नहीं समझ सकते और साथ ही इस बात को भी नहीं समझ सकते कि जब नई औद्योगिक नीति और औद्योगीकरण का बड़ा तबका स्वागत कर रहा है, वैसी स्थिति में आदिवासी समुदाय हर जगह उसके खिलाफ क्यों उठ खड़ा हुआ है। न सिर्फ झारखंड, बल्कि ओड़िशा और छत्तीसगढ़ में विश्व पूंजीवाद का मुकाबला करता क्यों दिख रहा है?
जन-विज्ञान ने संसार की सभी जातियों को रंग के आधार पर मुख्यतया तीन नस्लों में बांटा है। पहली नस्ल गोरों की है, जिसे हम काकेसियन कहते हैं। दूसरी नस्ल मंगोलों की है, जिनका रंग पीला होता है। तीसरी नस्ल काले लोगों की है। अन्य रंग इन्हीं रंगों के मेल से बने हैं। इसी तरह रूप के आधार पर विभाजन किया जाए तो अपने देश में चार प्रकार के लोग मिलते हैं। एक तरह के लोगों का कद छोटा, रंग काला, नाक चौड़ी और बाल घुंघराले होते हैं। ये संभवत: जनजातीय समुदाय के लोग हैं और उन्होंने अपना ठिकाना जंगलों में बना रखा है। इतिहासकारों के मुताबिक ये द्रविड़ों और आर्यों के पहले से यहां आकर बसे थे।
एक दूसरे किस्म के लोग वे हैं जिनका कद छोटा, रंग काला, सिर के बाल घने और नाक खड़ी और चौड़ी होती है। रंग और कद-काठी में ये आदिवासियों के समान दिखते हैं, लेकिन हैं आदिवासियों से भिन्न, और विंध्याचल के नीचे सारे दक्षिण भारत में फैले हुए हैं। ये द्रविड़ जाति के लोग हैं। तीसरी जाति के लोग आर्य हैं, जिनका रंग गोरा या गेहुंआ होता है; कद-काठी लंबी और नाक नुकीली होती है। लेकिन इस देश की उष्ण जलवायु और अन्य जातियों के वैवाहिक मिश्रण से उनका रूप-रंग भी आज बहुत बदल गया है। और रंग-रूप के लिहाज से चौथे लोग वे हैं जो म्यांमा, असम, भूटान, नेपाल, उत्तर प्रदेश, उत्तर बंगाल और कश्मीर के उत्तरी किनारे पर पाए जाते हैं। इनका रंग पीला, मुखाकृति चपटी और नाक पसरी हुई होती है। ये मंगोल जाति के लोग हैं।
भाषा के लिहाज से भी मनुष्य समुदाय का वर्गीकरण किया गया है। डॉ सुनीति कुमार चटर्जी का कहना है कि भारतीय जनता की रचना जिन लोगों को लेकर हुई है, वे मुख्यतया तीन भागों में विभक्त किए जा सकते हैं। आस्ट्रिक यानी आग्नेय, द्रविड़ और हिंद यूरोपीय। झारखंड में इंडो आर्यन समूह की भाषाएं सदानी में बदल गई हैं, कुरूक/ उड़ाव द्रविड़ समूह की भाषाओं से मिलती-जुलती हैं। संथाली, मुंडारी, हो और खड़िया को आस्ट्रिक समूह में रखा गया है। यानी भाषाई दृष्टि से झारखंड के आदिवासी आस्ट्रिक जाति और आस्ट्रिक भाषा परिवार के सदस्य हैं।
इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों ने भारत में जातियों और संस्कृतियों का जो समन्वय किया, उसी से हिंदू समाज और हिंदू संस्कृति का निर्माण हुआ। बाद में जो भी आए, उन्होंने इस हिंदू संस्कृति को स्वीकार किया और उसमें समाहित हो गए, चाहे वे मंगोल हों, यूनानी, यूची, शक, अभीर, हूण और तुर्क हों। लेकिन यह सर्वमान्य तथ्य है कि आग्नेय परिवार के आदिवासियों ने उस हिंदू धर्म को कभी स्वीकार नहीं किया।
संघ परिवार के लोग आदिवासियों को, जिन्हें हाल तक वे वनवासी कहते थे, हिंदू साबित करने की हरचंद कोशिश करते हैं। लेकिन हिंदू समाज में वनवासियों की हैसियत क्या है, इसे हिंदू धर्मग्रंथों में वर्णित कुछ कहानियों और मिथकों से समझा जा सकता है।
हनुमान को वनवासियों का पूर्वज बताते हुए उन्हें राम का परम सेवक होने का दर्जा दिया गया है। हैं वे सेवक ही। सूर्यवंशी आर्यपुत्र राम के चरणों में बैठने और वक्त-बेवक्त उन्हें कंधे पर लाद कर घूमने वाला सेवक। महाभारत की कथा के अनुसार एक आदिवासी युवक एकलव्य ने कौरवों और पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या सीखनी चाही तो उन्होंने सिखाने से तो इनकार कर ही दिया। अपने कौशल और लगन से उसने धनुर्विद्या सीख ली तो कहीं वह उनके शिष्य अर्जुन से प्रतिस्पर्धा न करने लगे, इसलिए गुरु दक्षिणा में उससे अंगूठा ही मांग लिया।
आज भी तथाकथित विकास के नाम पर आदिवासी समाज से कुर्बानी मांगी जाती है और अपनी बलि देने से इनकार करने पर उन्हें गोलियों से भून दिया जाता है। यह बात बार-बार दोहराई जाती रही है कि आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने की जरूरत है। मगर वास्तव में आदिवासियों के प्रति कोई संवेदनशीलता होती तो विकास के नाम पर उनके साथ होने वाली क्रूरता पर जरूर ध्यान जाता।
आदिवासी क्या सिर्फ विकास के नाम पर बलि चढ़ने के लिए हैं? आजादी के बाद से विभिन्न परियोजनाओं ने करोड़ों लोगों को उजड़ने पर विवश किया है। इन विस्थापितों में तीन चौथाई आदिवासी रहे हैं। आज भी उन्हें उजाड़ने और अपने पारंपरिक परिवेश और कुदरती संसाधनों से वंचित करने का सिलसिला जारी है। नाममात्र का मुआवजा देकर उनका सब कुछ छीन लिया जाता है। अगर वे इसके लिए राजी नहीं होते तो निर्ममता से उनका दमन होता है। 
कलिंग नगर में वे अपनी जमीन पर टाटा कंपनी का कारखाना बनने का विरोध कर रहे थे, जहां पुलिस फायरिंग में बारह आदिवासी मारे गए। इसी तरह झारखंड राज्य का गठन होने के बाद कोयलकारो परियोजना का विरोध करने वाले आदिवासियों पर तपकारा में पुलिस फायरिंग हुई,   जिसमें सात आदिवासी और मुसलिम समुदाय का एक व्यक्ति मारा गया।
दरअसल रंग-रूप और भाषा की खाई को तो पाटा जा सकता है, लेकिन कुछ ऐसी बातें होती हैं, जिन्हें पाटना मुश्किल होता है। मसलन, जीवन के बारे में हमारा दृष्टिकोण, प्रकृति के साथ हमारे रिश्ते आदि। आदिवासियों और गैर-आदिवासियों की जीवन दृष्टि के फर्क को हम कुछ ठोस उदाहरणों से समझ सकते हैं।
ईश्वर की कल्पना किसी न किसी रूप में सभी धर्मावलंबी करते हैं। गैर-आदिवासी समाज ईश्वर की कल्पना सगुण रूप में एक सुपुरुष के रूप में करता है। राम, कृष्ण या विष्णु आदि अलौकिक शक्तियों से संपन्न पुरुष हैं। ईश्वर का निर्गुण रूप भी मानवीय गुणों से संपन्न है। जबकि आदिवासी प्रकृति पूजक होते हैं। वे पहाड़, जंगल और पेड़ को पूजते हैं।
पूरी हिंदू सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था वर्णाश्रम धर्म पर टिकी हुई है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, उसके चार भाग हैं। ब्राह्मण पुजारी-पुरोहित और शिक्षक होता है, क्षत्रिय के हाथ में शासन व्यवस्था, वैश्य के जिम्मे वानिकी और व्यापार और शूद्र के जिम्मे सभी की सेवा करना, सभी तरह का मानवीय श्रम करना। आदिवासियों में यह वर्ण व्यवस्था नहीं।
आदिवासी समाज श्रम आधारित समाज है और गैर-आदिवासी समाज दूसरे के श्रम के शोषण पर टिका समाज। खुद रिक्शा खींच कर जीवनयापन करना श्रम आधारित समाज की रचना करता है। जब कोई दो-चार-दस रिक्शा दूसरे से खिंचवा कर यही काम करता है तो कहा जाएगा कि वह दूसरे के श्रम के शोषण पर टिका है। गैर-आदिवासी समाज का भी एक बड़ा हिस्सा कृषि व्यवस्था पर टिका है, लेकिन वहां जमीन का मालिक वैसा व्यक्ति भी हो सकता है, जो खुद खेती न करता हो। पूरे उत्तर भारत में कृषि व्यवस्था दिहाड़ी मजदूरों पर टिकी हुई है। आदिवासी समाज में ऐसी कल्पना ही नहीं की जा सकती।
पूरी गैर-आदिवासी व्यवस्था अतिरिक्त उत्पादन और अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांतों पर टिकी है। विकास के लिए जरूरी है अतिरिक्त उत्पादन और मुनाफा। कुछ लोगों के श्रम से उनकी जरूरत से अधिक कृषि क्षेत्र में उत्पादन हुआ तभी मानव जाति के विकास का रास्ता खुला। इस व्यवस्था की विडंबना यह हुई कि इसमें शारीरिक श्रम की कीमत सबसे कम आंकी गई और इसलिए श्रम करने वाले को निकृष्ट माना गया। खेत में काम करने वाला, चमड़े का सामान बनाने वाला, कपड़े बुनने वाला- ये सभी दलित हैं और आर्थिक दृष्टि से भी सबसे अधिक विपन्न।
आदिवासी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था अतिरिक्त उत्पादन और अतिरिक्त मूल्य या मुनाफे के सिद्धांत का पूरी तरह निषेध करती है। वह उतना ही उत्पादन करती है जितने की उसे जरूरत है। वह कल की चिंता नहीं करती और इसलिए प्रकृति का उतना ही दोहन करती है जिससे उसका नुकसान न हो।
गैर-आदिवासी समाज में सभी में थोड़ी-बहुत वणिक बुद्धि होती है। यानी जोड़-तोड़, हिसाब-किताब करना। कल की चिंता और उसके लिए संचय। इसलिए गैर-आदिवासी समाज का कोई भी सदस्य ‘धंधा’ कर सकता है। यह अलग बात है कि कोई ज्यादा प्रवीण होता है, कोई कम। लेकिन आदिवासी समाज का संपन्न से संपन्न व्यक्ति ‘धंधा’ नहीं कर सकता। संपन्न होने के बावजूद महाजनी नहीं कर सकता।
सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के इस अंतर का प्रतिफलन कलाओं के क्षेत्र में भी हुआ है। गैर-आदिवासी समाज में रंगमंच होता है और दर्शक दीर्घा या प्रेक्षागृह। कलाकार और दर्शक। लेकिन आदिवासी समाज में इस तरह का विभाजन नहीं। पीड़ा और उल्लास के क्षणों की भी सामूहिक अभिव्यक्ति होती है, उसमें सभी भागीदार होते हैं। फसल कटने के बाद चांदनी रात में नाचते वक्त आदिवासी समाज का हर औरत-मर्द कलाकार बन जाता है। दूसरी तरफ अगर कोई अच्छा बांसुरी बजाता है तो वह उसका अतिरिक्त गुण तो है, लेकिन इस वजह से उसे इस बात की छूट नहीं कि वह अपने खेत में काम न करे।
आदिवासी और गैर-आदिवासी समाज और उनकी संस्कृति में अंतर करने वाली ये कुछ बातें हैं। आदिवासी संस्कृति आदिम नहीं, बल्कि एक भिन्न संस्कृति है। विश्व पूंजीवाद से आदिवासियों का टकराव दरअसल दो संस्कृतियों का टकराव है। ‘ये दिल मांगे मोर’ की संस्कृति और सीमित संसाधनों के बीच जीवन बसर करने वाले ‘आत्मतोष’ की संस्कृति का टकराव है। हालांकि मुख्यधारा में लाने के नाम पर हम उनके इस सांस्कृतिक वैशिष्ट्य को नष्ट करने की हरचंद कोशिश कर रहे हैं।